मध्य प्रदेश के बघेलखंड में एक ऐसा गांव भी है जिसने बापू के स्वावलंबन के पाठ से ऐसा सबक लिया कि वह उनकी जीविका का साधन बन गया। यही नहीं, कई पीढ़ियों से यह गांव चरखा चला कर अपनी जीविका चला रहा है। सतना जिला मुख्यालय से 90 किलोमीटर दूर रामनगर तहसील का यह गांव है सुलखमा। यहां की आबादी लगभग 2600 है। यहां रहने वालों की जीविका का साधन चरखा है। पाल जाति बाहुल्य इस गांव की यह परंपरा महात्मा गांधी के सिखाए पाठ की वजह से है। असल में गांधी जी ने स्वावलंबी भारत पर सपना संजोया था, उसका पालन आज भी इस गांव में हो रहा है और चरखे से कम्बल बनाकर यहां के लोग अपनी आजीविका चलाते हैं। यह काम भी अलग-अलग हिस्सों में बंटा हुआ है। चरखा चलाकर ऊन कातने का काम घर की महिलाओं का होता है, जो घर के बाकी काम निपटाकर खाली बचे समय में चरखे से ऊन तैयार करती हैं। इसके बाद का काम घर में पुरुषों का होता है जो काते गए ऊन से कम्बल और बाकी चीजें बुनने का काम करते हैं।
पीढ़ियों से चल रहा यह काम
49 साल के रघुवर पाल ने लाइव हिंदुस्तान से कहा कि यह पता नहीं कि चरखा चलाने का काम कब से किया जा रहा है। बाबा-दादा बताते रहे कि पुरखों का काम है, जो सीखते-सिखाते यहां तक आ गया। रघुवर आगे बताते हैं कि दूसरा कोई और काम नहीं सीखा इसलिए चरखा से ऊन कातने और कंबल बनाने का काम कर रहे हैं।
बरसात छोड़, 8 महीने करते हैं चरखे से काम
पाल समाज की पीढ़ियों से चले आ रहे चरखा चलाने के काम का नई पीढ़ी के लिए चुनौती बना चुका है। यहां के 50 वर्षीय संपत पाल बताते हैं कि ऊन तो घर में होता नहीं है, इसलिए लागत निकालना मुश्किल है। 25 रुपये किलो मिलने वाला ऊन आज 70 से 80 रुपये में मिलता है। जबकि एक कंबल बनाने में 10 दिन लगते हैं। यह बिकता है या नहीं यह कहना मुश्किल है इसलिए अब कोई मांग करता है तभी चरखा चलाने का काम करते हैं, लेकिन यह भी डर रहता है कि पुरखे जो सीखा गए वह क्यों खत्म होने दें इसलिए बरसात के दिन छोड़कर 8 माह यह काम चलता रहता है।विरासत को बचाने की चुनौती
सुलखमा गांव में पाल समाज की आबादी करीब 600 है। पीढ़ियों से चले आ रहे इस काम 100 लोग करते हैं। अब यह सिमट रहा है। इन दिनों 10 से 15 घरों के लोग चरखा चलाने का काम करते हैं। 18 साल की संगीता पाल ने कहा कि समय ज्यादा लग रहा, उस तरह की कमाई नहीं है इस लिए मेरे से बड़े भाई लोग सूरत-मुम्बई चले गए। संगीता कहती है कि यह भरोसा नहीं रहता कि कम्बल और बैठकी बिकेगी या नहीं। इसी कारण रुचि कम हो रही है। सरकार जोर लगाए तो यह काम आगे बढ़ जाएगा। यही कारण है कि चरखा चलाने और ऊन कातने की इस विरासत को बचाने की चुनौती है।